परिचय –
महाराजा जवाहर सिंह ( jawahar singh ) जो भरतपुर राज्य के जाट सम्राट थे ,भरतपुर राजस्थान में एकमात्र जाट रियासत थी ,भरतपुर की स्थापना महाराजा सूरजमल ने सन 1733 में की थी ( jawahar singh ) महाराजा सूरजमल के ज्येष्ठ पुत्र थे | महाराजा ( jawahar singh ) जी बड़े पराक्रमी वीर थे।महाराजा जवाहर सिंह ( jawahar singh ) का शासन काल 1763 से 1768 ईस्वी तक रहा |
इतने अल्प समय शासन करने के बाद भी महाराजा महाराजा जवाहर सिंह ने कई युद्धों में जीत हांसिल की ,और अपने पिता सूरजमल की तरह जाट साम्राज्य का विस्तार किया |
महाराज के शासन काल में मुग़ल हो या मराठे सभी खौफ खाते थे , महाराजा जवाहर सिंह( jawahar singh ) एकमात्र हिन्दू जाट महाराजा थे जिन्होंने मुगलों की दोनों राजधानी आगरा और दिल्ली पर शासन किया ,भारत के अन्य कोई राजा दिल्ली को भी नहीं जीत पाए थे ,आगरा तो दूर की बात थी ,
महारानी किशोरी देवी, महाराजा जवाहर सिंह की माता, ने पुष्कर स्नान करने की इच्छा व्यक्त की। महारानी किशोरी देवी को अपने उदर से कोई संतान न थी, इसलिए वे महाराजा जवाहर सिंह ( jawahar singh ) को अपना दत्तक पुत्र मानती थीं।महाराज ने अपनी माता को बताया कि जल्द ही उनकी इच्छा पूरी होगी।
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विजय सिंह का निमंत्रण और महाराजा jawahar singh की पुष्कर यात्रा –
संयोग से उसी समय महाराजा jawahar singh के मित्र मारवाड़ के शासक विजय सिंह राठौड़ ने भी उन्हें कुछ सामरिक समझौतों व पुष्कर स्नान के लिए आमंत्रित किया।
जयपुर के महाराजा माधो सिंह से वे अपने राज्य से बाहर निकलने की अनुमति मांगी। माधो सिंह ने उन्हें सेना के कुछ अंगरक्षकों के साथ अकेले जाने की सलाह दी।
जब महाराज सुरजमल ने ईश्वरी सिंह का पक्ष लेकर उन्हें राजा बनाया, तो माधो सिंह और महाराजा jawahar singh के रिश्ते खराब हो गए।माधो सिंह ने अभी तक उस कड़वाहट को नहीं भुलाया था।दोनों राज्यों में सीमा को लेकर भी विवाद था। यही कारण था कि महाराजा jawahar singh को षड्यन्त्र की आहट आने लगी। इसलिए उन्होंने सैनिकों के साथ जाने का निर्णय लिया।
प्रताप सिंह नरुका को शरण जयपुर से दुश्मनी –
माधो सिंह ने प्रताप सिंह नरुका को जयपुर से निकाल दिया था और उसके भाई-बहन उसे मार डालना चाहते थे, लेकिन महाराजा सुरजमल ने उसे शरण दी और एक रकम दी, तो प्रताप सिंह नरुका गुप्त रूप से जयपुर गया और महाराजा जवाहर सिंह से विस्वासघात करके माधो सिंह से मिल गया और उसकी अधीनता स्वीकार ली।धीरे-धीरे, उन्होंने महाराजा जवाहर सिंह के खिलाफ योजना बनाई और अन्य राजपूत सामंतों को उनके खिलाफ प्रेरित किया।
महाराजा जवाहर सिंह को इस विषम परिस्थिति में दुष्मनो के घर न जाने के लिए कई सलाहकारों ने कहा। लेकिन मातृभक्त महाराजा जवाहर सिंह ने स्पष्ट किया कि वे किसी भी कीमत पर अपनी माता को पुष्कर स्नान करवाके लाएंगे।
सलाहकारों ने दूसरे दिन जाने को कहा, लेकिन जवाहर सिंह ने कहा कि अब तो कार्तिक पूर्णिमा को ही स्नान करेंगे क्योंकि अगर हम इन सबके कारण रुक गए तो इनका हौसला बढ़ेगा और भरतपुर को खतरा होगा।
महाराजा जवाहर सिंह ने पूरे गाजे बाजे के साथ पुष्कर पहुंचकर अपनी यात्रा आरंभ की।महाराजा विजयसिंह राठौड़ ने वहां ऊनका का भव्य स्वागत किया।उन दोनों ने पगड़ी बदलकर एक दूसरे को भाई मान लिया।जवाहर सिंह के आने पर विजय सिंह ने एक बड़ा पुष्कर सम्मेलन भी आयोजित किया।विभिन्न खेलों में प्रतियोगिताएं हुईं।दान पुण्य था।माता किशोरी और जवाहर सिंह ने पुष्कर स्नान के बाद घाटों और मन्दिरों की स्थापना की।
पुष्कर स्नान-
पहले पुष्कर स्नान सिर्फ शाही लोगों और उनके प्रियजनों के लिए था, किसी भी गरीब जाति के व्यक्ति को नहाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन महाराजा जवाहर सिंह ने वह सबके लिए खोल दी, और दोनों महाराजाओं ने हर हिंदू को वहां स्नान करवाया।उनका कहना था कि धार्मिक स्थान हर धर्म के लोगों के लिए खुले रहने चाहिए।
महाराजा जवाहर सिंह ने पूरे गाजे बाजे से पुष्कर पहुंचकर अपनी यात्रा शुरू की।महाराजा विजयसिंह राठौड़ ने वहां ऊनका को भव्य स्वागत किया।उन दोनों ने एक दूसरे को भाई मानने के लिए पगड़ी बदल दी।विजय सिंह ने जवाहर सिंह के आने पर भी एक बड़ा पुष्कर सम्मेलन आयोजित किया।खेलों की प्रतियोगिताएं हुईं।दान पुण्यपूर्ण था।माता किशोरी और जवाहर सिंह ने वहां पुष्कर स्नान के बाद मन्दिर और घाट बनाए।
पहले पुष्कर स्नान सिर्फ अमीर लोगों और उनके करीबी लोगों के लिए था. गरीब लोगों को नहाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन दोनों महाराजाओं ने हर हिंदू को स्नान कराया, और महाराजा जवाहर सिंह ने सबके लिए द्वार खोला।
जब यह खबर जयपुर पहुंची, उन्होंने दूसरे रूढ़िवादी राजपूतों को भड़काया कि जवाहर सिंह ने पुष्कर में दलितों को भी प्रवेश दिलवाकर शाही परंपरा को तोड़ा है और सभी को अपमानित किया है।
इस तरह माधो सिंह ने एक बड़ी सेना बनाई।वास्तव में, वह जवाहर सिंह से गुस्सा था।जवाहर सिंह और माधोसिंह भी सीमाओं पर विवाद करते थे।
यहाँ, महाराजा विजयसिंह राठौड़ और महाराजा जवाहर सिंह ने सभी हिंदू राजाओं को मिलकर दूसरे देशों से युद्ध करने और मराठों को उत्तर भारत में फैलने से रोकने के लिए एक समझौता किया।यह जानते हुए भी विजयसिंह ने कहा कि वह सभी जाट राजपूत को एक झंडे के नीचे लाकर अपने क्षेत्र में शांति कायम करेंगे।
विजयसिंह राठौड़ को माधोसिंह की तैयारियों का पता चला तो वे बेहोश हो गए। उन्होंने भटराजा सदाशिव को बताया कि अगर जवाहर सिंह के खिलाफ कोई षड्यंत्र हो रहा है तो वह स्वयं कच्छवाहा सीमा तक उन्हें छोड़ देगा। सदाशिव माधो सिंह ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है, सिर्फ जज्बे के लिए तैयारी हो रही है।उसने विजयसिंह को विश्वास दिलाया और जवाहरसिंह को उपहार भी दिए, लेकिन जवाहरसिंह को शक हुआ।शत्रु को भयभीत करने के लिए उन्होंने कहा कि वे शांति चाहते हैं, और वे हर परिस्थिति से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।
तब महाराजा जवाहर सिंह ने विजयसिंह से विदा ली और दोनों अपने लक्ष्य की ओर चले गए।
मांडवा-मण्डोली संघर्ष और महाराजा जवाहर सिंह की विजय –
तो रास्ते मे मांडवा मण्डोली घाटी से एक जगह दो पहाड़ियों के बीच दर्रे से गुजर रहे थे। वह दर्रा इतना संकरा था कि उसमें से सैनिको को लम्बी कतार से गुजरना था।करीब आधी सेना गुजरने गयी थी व तोप और भारी भरकम हथियार भी आधे पीछे रह गए थे। उसी समय माधो सिंह की सेना ने सूर्योदय से पूर्व आक्रमण कर दिया।अच्चानक व धोखे से हुआ इस आक्रमण का पुरोहित कृपाराम ने डटकर सामना किया और महाराज तक समाचार पहुंचाया की कच्छवाहो ने आक्रमण कर दिया और वे लड़ना चाहते हैं क्या करना है?
विचार विमर्श करके और शत्रु की स्थिति देखकर, महाराज ने लड़ने को कहा. उन्हें चलते चलते लड़ने को कहा, ताकि संकरा दर्रा जल्दी से पार किया जा सके।
यह युद्ध चलता रहा दोपहर तक माधोसिंह की सेना का पलड़ा भारी रहा और जाटो के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन दोपहर तक दर्रा पर हो गया उसके पश्चात जाट सेना ने कहर ढाना शुरू कर दिया।शत्रु की संख्या दोगुनी थी।परन्तु फिर भी जवाहर की सेना ने शत्रु के हजारो सैनिको को काट दिया। और डटकर मुकाबला किया। शाम तक की सेना को तीतर बीतर कर दिया गया।
युद्ध जीतकर अपने लक्ष्य की ओर चले गए |
इस युद्ध को बहुत बड़ा रक्तपात का युद्ध कहा जाता है। तीन हजार माधोसिंह समर्थित राजपूत और दो हजार जाट इसमें मारे गए। राजपूतों के प्रमुख सरदार और सेनापति मारे गए। उस समय उनके मालिकों के स्थानों पर औरतों, बच्चों और बूढ़ों के अलावा कोई नहीं था।10 से 15 वर्ष के बच्चे ही बचे थे।
जवाहर सिंह शांति चाहते थे, लेकिन धोखे से हुए आक्रमण का प्रतिकार करना उनकी जिम्मेदारी बन गई।
इस युद्ध ने दोनों राज्यों को कमजोर कर दिया।
इतिहासकार कर्नल टॉड ने कहा कि-
कर्नल टॉड ने अपने वृतांत में लिखा हैं ……….
विवादास्पद संघर्ष, जिसमें कोई समाधान नहीं हुआ, हालांकि यह अंततः khchwahas के पक्ष में हुआ और jats प्रमुख की भागीदारी से भाग गया। amber को नुकसान पहुंचा। In the loss of nearly all chieftains of not। 「
” अर्थात भयंकर युद्ध हुआ और इसका फल कछवाहों के पक्ष में कम तथा जाट सम्राट के पाले में हुआ। पर युद्ध आमेर के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ, क्यों कि इसमें वहां के सब प्रसिद्ध योद्धा मारे गए ”
पुष्कर स्नान आम जन के लिए खुल जाना —
परन्तु एक तो पुष्कर सबके लिए खुल गया व हिन्दुओ में रूढ़िवादिता कम हुई।साथ ही शत्रु के घर मे लड़कर शौर्य की मिशाल भी छोड़ी।
महारानी किशोरी द्वारा पुष्कर में एक घाट का निर्माण करवाया गया | जहाँ पर आज सभी जाति और धर्मों के लोग प्रेम पूर्वक स्नान करते है ,रियासत काल में राजपूतो के द्वारा अन्य किसी जाति , धर्म के लोगों के लिए पुष्कर स्नान बर्ज़ित था , लेकिन महारानी किशोरी देवी ने पुष्कर स्नान सभी जनमानस के लिए खोल कर समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता को दूर करके एकता की मिशाल बनाई |
दूसरा, उन्होंने ऐसे कठिन हालात में भी अपनी माता की पुष्कर स्नान की इच्छा को पूरा करके मातृभक्ति का उदाहरण दिया।
माधोसिंह की छलता बात महाराजा विजयसिंह राठौङ तक पहुंची तो वे बहुत गुस्सा हुए।माधोसिंह को तो वे नहीं मार सकते थे, लेकिन भटराजा सदाशिव को उनके घर से बाहर निकाल दिया क्योंकि उसी ने सच्चाई छिपाई थी।
महाराजा जवाहर सिंह का मूल्यांकन —jawahar singh
उनका दरबार बहुत सुंदर था। भरतपुर में बहादुर सैनिक ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। महाराजा जवाहर सिंह जी ने देश की कला-कौशल को बहुत उत्साहित किया। कवियों को बड़े पुरस्कार दिए गए, जो उनकी लेखन क्षमता को बढ़ाते थे। आगरा में गो-हत्या को पूरी तरह से रोक दिया गया। कसाइयों की दुकानें बंद हो गईं। तुमने बहुत कुछ किया जो सच्चे हिंदू को गर्व करने वाले हैं।
पुष्कर मेला —
पुष्कर मेले का आयोजन राजस्थान राज्य के अजमेर जिले में कार्तिक मास के प्रारंभ से कार्तिक पूर्णिमा तक होता है | इस मेले को राजस्थान का रंगीन मेला भी कहा जाता है , इस मेले में देशी -विदेशी पर्यटक बहुत बड़ी संख्या में भाग लेते हैं |
एतिहासिक तथ्य – :
शास्त्रों के अनुसार, आपने बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वरम और द्वारका के चारों धामों को देख कर भी आपकी यात्रा सफल नहीं होगी अगर आपने पुष्कर का दर्शन नहीं किया है।। पुष्कर का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है। राजस्थान का पुष्कर जगतपिता भगवान बृह्मा जी के लिए प्रसिद्ध है। हिंदू धर्म में पुष्कर को पांचवा तीर्थ भी कहा जाता है। पुष्कर , हरिद्वार की तरह, हिंदुओं का बड़ा तीर्थस्थल है। इसे तीर्थराज पुष्कर कहा जाता है क्योंकि यह तीर्थों में सबसे बड़ा है। इतिहास के अनुसार पुष्कर मेले आयोजन करीब 300 वर्षों से होता आ रहा हैं .
मान्यता है कि इसी सरोवर के पास भगवान ब्रह्मा जी ने यज्ञ किया था जिसके कारण इस सरोवर को मोक्ष दायक भी कहा जाता है.
प्रमुख घाट –
पुष्कर सरोवर के चारों ओर कुल 52 घाट बनाए गए हैं। इन 52 घाटों में धार्मिक और पौराणिक कारण हैं। गऊ घाट सबसे बड़ा है। 52 घाटों को कई राजपरिवारों, पंडितों और समाजों ने बनाया है। इसमें ब्रह्म घाट, वराह घाट, बद्री घाट, सप्तर्षि घाट और तरणी घाट शामिल हैं। पुष्कर में भी कई राजघरानों ने यहां घाट बनाए हैं। इनमें ग्वालियर, जोधपुर, कोटा, भरतपुर के घाट और जयपुर के घाट शामिल हैं।
पुष्कर मेंले के आकर्षण –
1 – यह राजस्थान का सबसे बड़ा पशु मेला है, जिसमें , किसान, पशुपालक और डेयरी उद्योग से जुड़े लोग मवेशियों और ऊंटों को खरीदने और बेचने आते हैं।
2 – यह मेला लोक कलाओं का प्रदर्शन करता है। देश के विभिन्न फ्यूजन बैंड यहां अपनी प्रस्तुति देने आते हैं। राजस्थान का प्रसिद्द कालबेलिया नृत्य यहाँ पर्यटकों को अपनी और आकर्षित करता है |
3 – इस मेले में हॉट एयर बैलून पर सवारी करना एक अलग अनुभव है।
4 – पुष्कर मेला में लोग ऊंट की डेजर्ट सफारी भी देखने आते हैं। जो इस मेले का मुख्य आकर्षण है |
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