जीवन परिचय– ( Life introduction )
किलेनुमा गांव भरतपुर से 40 किलोमीटर दक्षिण और बयाना से 15 किलोमीटर उत्तर पूर्व में एक ऊंचे टीले पर बसा है। गांव के छत्रसाल सिंह के दो पुत्र, केहरी सिंह और करन सिंह, पहलवानी का बहुत शौकीन थे और उनके सामने कोई पहलवान उनसे मुकाबला नहीं करता था।
Table of Contents
करनसिंह जेल यात्रा– ( Jail trip )
कहानी बताती है कि भाई केहरी सिंह की भैंस एक बार करनसिंह के खलियान में घुस गई और उसे बहुत चोट लगी। करनसिंह क्रोधित हो गया और खलियान में एक भैंस की पूछ पकड़कर फेंक दी, जिससे भैंस मर गई। जब भाई ने राजा से इसकी शिकायत की, तो राजा ने करनसिंह को जेल में डाल दिया और उसे हर दिन 10 किलो सुखा चना देना शुरू कर दिया।
कैदी से सैनिक- ( commander )
कथा कहती है कि इंग्लैंड का सबसे बड़ा पहलवान भारत आया था। भारत से कोई भी पहलवान उस समय अंग्रेज पहलवान से लड़ने को तैयार नहीं था। भरतपुर के महाराजा ने कहा कि जो पहलवान कुश्ती में एक अंग्रेज पहलवान को हरा देगा, उसे इनाम मिलेगा। दरबारियों ने करनसिंह नाम सुझाया था |
राजा ने कहा कि करनसिंह को सजा माफ कर दी जाएगी अगर वह अंग्रेज पहलवान को हरा देगा। दरबार में करनसिंह को बुलाया गया और राजा की घोषणा की गई। Karan Singh ने शर्त मानते हुए कहा कि मुझे पहले उस पहलवान को दिखाना होगा। विदेशी पहलवान को भरे दरबार में बुलाया गया Karan Singh ने अंग्रेज पहलवान से अपना सिर दबाने को कहा, लेकिन वह ऐसा नहीं किया।
तब करन सिंह ने अंग्रेज पहलवान का सिर दोनों हाथों से तोड़ दिया। जब अंग्रेज पहलवान के मुंह, कान और नाक से खून बहने लगा, वह तड़पने लगा और छुड़ाकर कहा कि वह करन सिंह से कुश्ती नहीं लड़ सकता था।भरतपुर के राजा बहुत खुश हुए कि करन सिंह ने अकेले एक लड़ाई में इंग्लैंड के प्रसिद्ध पहलवान को हराया। राजा ने उसे क्षमा की और उसे भरतपुर के किले लोहागढ़ में सेनापति नियुक्त किया। बाद में, करन सिंह ने अपने बड़े भाई, केहरी सिंह, से माफी मांगी और उसे भी सेना में भर्ती कर दिया।
अंग्रेजों से टक्कर-
शताब्दी की शुरुआत में अंग्रेजों का अत्याचार बढ़ गया, और कुछ राजा-रजवाड़े अंग्रेजों का भक्त बन गए। 11 दिसंबर 1825 को, लोहागढ़ की उत्तराधिकारी के गृह क्लेश का फायदा उठाना चाहते हुए, अंग्रेजी सेना के कमांडर इन चीफ केम्बर मियर और जनरल निकोलस ने भरतपुर पर हमला किया।
लोहागढ़ का निर्माण ऐसा था कि दुश्मन के तोपों के गोले या तो मिट्टी में घसते थे या हवा में जाते थे. उत्तर दिशा में आक्रमण करने वाले किले पर चित्तौड़गढ़ वाले किले का गेट चड़ा था। यहां उल्लेखनीय है कि चित्तौड़गढ़ किले पर हमला कर अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली का दरवाजा खोला, जिसका दरवाजा भरतपुर के महाराजा जवाहर सिंह ने दिल्ली की जीत पर लगाया था।
19वीं शताब्दी की शुरुआत भारत में अंग्रेजों के दमन से हुई थी। ऐसे हालात में भारत के राजवाड़े शांत रहे। जबकि लोहागढ़ का अजय दुर्ग अंग्रेजों से बचने के लिए तैयार था, भारत में कुछ राजवाड़े अंग्रेजों से प्यार करने लगे। किले की रक्षा पर तत्कालीन भरतपुर नरेश महाराजा रणजीत सिंह को कोई चिंता नहीं थी। क्योंकि उनका सेनापति अद्भुत क्षमता रखता था |
” करनसिंह माढापुरिया “
अब करण सिंह पूरी तरह से जिम्मेदार था। वह सवा मन की पचास किलो की तलवार लेकर युद्ध करता था। आज वीरता सोच से अलग है | आजकल आम आदमी इस सवा मन की तलवार से मुकाबला नहीं करता। किंतु जब इस तलवार को भरतपुर मोती महल में देखा गया, जो कुछ समय पहले भरतपुर संग्रहालय में थी, लोगों ने इसे मान लिया। मोती महल में, लेखक और इतिहासकार रामवीर सिंह वर्मा ने स्वयं उनकी तलवार, ढाल या बंदूक को देखा है।
अब तक अंग्रेजों ने भरतपुर के किले पर हमला नहीं किया था; दुश्मन हर बार किला घेरकर हमला करता था, लेकिन धूल में गिरते ही उसकी तोपों के गोले ठंडा हो जाते थे। युद्ध के पूरे दौरान, करनसिंह एक हाथ से किले के दरवाजे के एक पट को पकड़ रहा था और दूसरे हाथ से शत्रु को मार रहा था। तभी एक क्रूर राजा ने घोषणा की कि करनसिंह मर गया है।
तब राजा ने कहा कि भरतपुर अंग्रेजों के पास होता अगर करन सिंह मर जाता। जब राजा और रानी युद्ध देखने के लिए उत्तर की मुख्य द्वार पर पहुंचे, उन्होंने पाया कि उन्हें गलत खबर दी गई थी। वीर करनसिंह सिंह फाटक पर लड़ रहा है
Karan Singh का लुंगी की तरह का कपड़ा, या तहमद, खुल गया है और वह युद्ध कर रहा है। उधर, राजा ने सोचा कि वीर को तहमद पहना देना चाहिए क्योंकि वह नंगा था। राजा को तहमद पहनाते देखकर करन सिंह को शर्म आ गई। लेकिन वह नहर में कूदकर नौ अंग्रेज अफसरों को बाहों में भर लिया। बाद में उनके शरीर का कोई भी हिस्सा नहर में नहीं पाया गया,
करन सिंह की याद-
ब्रज क्षेत्र में करन सिंह की वीरता की बहुत सी कहानियां हैं। करन सिंह ने एक बार अपने पुत्र को बताया कि वह सुनी में अपनी पत्नी को थप्पड़ मार दिया था। क्रोधित होकर, करन सिंह ने एक नीम के पेड़ को तोड़ दिया और दोनों फाड़ों के बीच 60 किलो का पत्थर डाल दिया। उसने अपने पुत्र को बताया कि वह ताकतवर बनने के लिए इस पत्थर को नीम के पेड़ से निकाल देगा, लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाया।
20 से 25 साल पहले, खलियान में एक बार आग लगने पर नीम के उस पेड़ में पत्थर फंसा था, जो आज भी बाबू सिंह के नाम पर रखा गया है।
Karan Singh Singh माढापुर गांव में आज भी रहते हैं। माढापुर के चार दरवाजे में से आज सिर्फ एक खड़ा है, बाकी सब गिर गए हैं। माढापुर ठंडाई पीता था। पुराने लोगों ने बताया कि माढापुर ने पत्थर की प्याऊ में खुद ठंडाई घोटकर पीया था। आज यह 3-5मन से कम नहीं है और 70-100 लीटर पानी से भरता है। आज भी उनकी सफेद पत्थर की छतरियां हैं। आज भी भरतपुर संग्रहालय में करनसिंह माढापुरिया की सवा मन की तलवार है, जिससे वे लड़ते थे।
करनसिंह माढापुरिया की वीरता – Bravery of Karansingh Madhapuria
करनसिंह माढापुरिया—करनसिंह माढापुरिया भरतपुर राज्य का सेनापति था जब अंग्रेजों ने जयपुर को जीतने का असफल प्रयास किया, जिसकी वीरता को अपने दुश्मन भी प्रशंसा करते थे। 1830 में, जनरल लार्ड लेक और उनके साथियों ने इंग्लैंड में एशियाटिक जर्नल में एक लेख लिखा जिसमें अंग्रेज अधिकारियों ने करनसिंह की वीरता की प्रशंसा की। जब दुश्मन भी आपकी साहस कायल होता है, ऐसा बहुत कम होता है,
सम्मान – Respect
2010 में वीर करन सिंह माढापुरिया की मूर्ति उसके गांव में स्थापित की गई। 5 अगस्त 2010 को महाराजा विश्वेन्द्र सिंह, भरतपुर के पूर्व सांसद, ने मूर्ति और स्मारक का भव्य समारोहपूर्वक अनावरण किया। इस अवसर पर उन्होंने राजकीय माध्यमिक विद्यालय को वीर करनसिंह के नाम पर नामांकित करने की घोषणा की और गाँव को पांच लाख रुपये की सांसद निधि दी। साथ ही, उन्होंने गाँव में हर साल दंगल लगाने का वादा किया।
मूल्यांकन – Evaluation
करण सिंह की तरह, यह दुर्दिन भी भारत माता को देखने के लिए लोहागढ़ से चला गया था। लेकिन उसके कदमों पर कई साहसी लोग निकले। लोहागढ़ की साहस को कोई नहीं भूला सका, और अंग्रेजों ने इंग्लैंड में भी उसकी वीरता की प्रशंसा की। ऐसे वीर को भारतवासी सम्मान देते हैं |
कोई और योद्धा इससे बड़ा नहीं था। माना जाता है कि करण सिंह मांडापुरिया हर दिन एक कढ़ा खीर खाता था। भरतपुर संग्रहालय में आज भी यह कढ़ा मौजूद है। करण सिंह मांडापुरिया का तेगा और ढाल भरतपुर संग्रहालय की शोभा को बढ़ा रहे हैं, लेकिन उनकी मूर्ति या नाम से कोई पार्क या चौराहा नहीं है। वह अपने पैतृक गांव मांडापुर में अपनी छतरी, कुआं, अखाड़ा, हाथी, घोड़े और पानी पीने की प्याऊ को देखते हुए अंतिम सांस ले रहा है और रेख के अभाव में मर रहा है। यह गांव आज भी उनके पूर्वजों का घर है।
करण सिंह मांडापुरिया का पैतृक गांव महत्वपूर्ण है। इस गांव को पर्यटक स्थल में बदलना होगा। इससे बयाना, रूपवास, आगरा और फतेहपुर सीकरी जाने वाले पर्यटक इस महान योद्धा को देख सकते हैं। वे पता लगा सकते हैं |
आने वाली पीढ़ी को इनसे परिचित करने के लिए पाठ्यक्रम में एक अध्याय जोड़ा जाना चाहिए अगर ऐसा हो सके।
सन्दर्भ –
1- लोहागढ़ की यशोगाथा – लेखक रामवीर सिंह वर्मा |
4- जाट इतिहास
read also –1857 की क्रांति के नायक, जिन्होंने इतिहास बदल दिया, जानिए कहानी!
One thought on “लोहागढ़ का महावीर करनसिंह माढापुरिया ( 1826 )”